रामायण प्रतिपादन - अवध का संताप
जय श्री राम
कौशल्या कहे राम चंद्र से ,
आज तो हुई ममता की हार,
पिता के वचन पर इतनी गरिमा,
पीछे रह गया माँ का प्यार!
धर्म की व्याख्या मुझे न पढ़ाओ
कम्प उठ रहा मेरा मन
इतना कठोर कब से हुए राम
छोड़ के मुझे तुम चले हो वन !
दोनों पुत्र है चक्षु समान,
सुमित्रा के दो अनमोल रतन
दूर कैसे अब रहे पुत्र से
राम के संग जो चले है लखन !
वन का जीवन बहुत कठिन
फिर भी किसी की एक न मानी
महल की सुविधा को पीछे छोड़
पति के संग चली सीता रानी !
सिया के जैसे मेरे भाग्य कहाँ,
किस्से कहूँ मैं दिल की बात
विवश उर्मिला दुःख से वंचित
कैसे कटे अब दिन और रात
भ्रात के सिवा तुम्हे कुछ नहीं सूझे
तनिक इधर भी ध्यान दो नाथ
प्रेम का बंधन छोड़ छाड़ कर,
जा रहे वन को राम के साथ !
दोनों भाईयों को करे क्या विभाजित,
मन मैं मेरे स्वामी का वास ,
निंदिया के गोद मैं कट जायेगी ,
चौदह बरस लम्बी वनवास !
कैकेयी बैठी अपनी कक्षा मैं,
मंथरा सवारे उसके बाल,
पुत्र मोह मैं सोचे बावरी
राज करेगा मेरा लाल
दशरथ विवश अपने ही वचन से
अवध पर छा गया कैसा काल
कैसे रहे वो राम से अलग
कौन पूछे अब उनका हाल
रण भूमि पर जो दिया सहारा
हर्ष मैं दे दिए दो वरदान,
आज कैकेयी पुत्र मोह मैं
चीन रही खुद पति का प्राण
सूचना सुन भरत आश्चर्य चकित
संभल न सके वह अपना क्रोध
लज्जित अपने मात के कृत पर
राम से करे क्या अब अनुरोध
मति भ्रष्ट हो गयी क्या माता
किसने पढ़ा दी आपको पाठ
अपने की ज्येष्ठ को वन मैं भेज
कैसे बनू अवध का सम्राठ
राम है सिंहासन के अधिकारी
उनका सामर्थ्य अवध की शान
राम के जैसा न राजा है कोई
राम के जैसा न पुरुष महान
कैसे कठोर ह्रदय है माता
वरदान दिया है या दी कोई श्राप
पिता के मृत्यु का बना मैं कारण
कैसे हो गया मुझसे ये पाप
चार अंग और एक प्राण थे
भरत शत्रुघन लखन और राम
आप के इस निज स्वार्थ का कारण
कलंकित हुआ भरत का नाम
भारी ह्रदय और दुःख को समेटे
निकल पड़े भरत राम के द्वार
बंधु जनों और मंत्री संग
पहुंचे चित्रकूट नदिया पार
अश्रु बहे और शब्द न निकले
भ्रात को देख भर आया मन
राम ने उन्हें जब गले से लगाया
हुआ राम भरत का मधुर मिलान
लौट चलो ज्येष्ठ छोड़ो यह हठ,
क्षमा करो हम से हो गयी भूल
अपना सिंहासन खुद ही सम्भालो
मैं तो तोहरे चरण की धुल
पर वचन बद्ध जो रामचंद्र
पिता के प्रण का करे सम्मान
उनकी लीला अवध मैं न सीमित
नारायण करे जग कल्याण
चौदह बरस वो वन वन भटके
लंकेश ले गया सिया को साथ
वानर संग राम लंका पहुंचे
रावण का वध लिखा उनके हाथ
समय बीत चला तीव्र गति से
अवध मैं छायी हर्ष उल्लास
जानकी संग पधारे दशरथ नंदन
सफल हुआ उनका वनवास
पूर्ण हुई उर्मिला की प्रतीक्षा
कौशल्या की भर आयी आँख
अवध संपन्न राम राज्य से
अमर हो गया भरत का त्याग
निश्छल स्वभाव ढृढ़ संकल्प
कोमल विचार पर अटल है मन
आदर्श नायक , नीति के रक्षक,
आराध्य है सबके रघु नंदन
लब
सत्य धर्म का राह दिखाए
आज भी पर एक ही नाम
देश मैं हो परदेस मैं बैठे
हम तो जपते जय श्री राम
जय श्री राम
कौशल्या कहे राम चंद्र से ,
आज तो हुई ममता की हार,
पिता के वचन पर इतनी गरिमा,
पीछे रह गया माँ का प्यार!
धर्म की व्याख्या मुझे न पढ़ाओ
कम्प उठ रहा मेरा मन
इतना कठोर कब से हुए राम
छोड़ के मुझे तुम चले हो वन !
दोनों पुत्र है चक्षु समान,
सुमित्रा के दो अनमोल रतन
दूर कैसे अब रहे पुत्र से
राम के संग जो चले है लखन !
वन का जीवन बहुत कठिन
फिर भी किसी की एक न मानी
महल की सुविधा को पीछे छोड़
पति के संग चली सीता रानी !
सिया के जैसे मेरे भाग्य कहाँ,
किस्से कहूँ मैं दिल की बात
विवश उर्मिला दुःख से वंचित
कैसे कटे अब दिन और रात
भ्रात के सिवा तुम्हे कुछ नहीं सूझे
तनिक इधर भी ध्यान दो नाथ
प्रेम का बंधन छोड़ छाड़ कर,
जा रहे वन को राम के साथ !
दोनों भाईयों को करे क्या विभाजित,
मन मैं मेरे स्वामी का वास ,
निंदिया के गोद मैं कट जायेगी ,
चौदह बरस लम्बी वनवास !
कैकेयी बैठी अपनी कक्षा मैं,
मंथरा सवारे उसके बाल,
पुत्र मोह मैं सोचे बावरी
राज करेगा मेरा लाल
दशरथ विवश अपने ही वचन से
अवध पर छा गया कैसा काल
कैसे रहे वो राम से अलग
कौन पूछे अब उनका हाल
रण भूमि पर जो दिया सहारा
हर्ष मैं दे दिए दो वरदान,
आज कैकेयी पुत्र मोह मैं
चीन रही खुद पति का प्राण
सूचना सुन भरत आश्चर्य चकित
संभल न सके वह अपना क्रोध
लज्जित अपने मात के कृत पर
राम से करे क्या अब अनुरोध
मति भ्रष्ट हो गयी क्या माता
किसने पढ़ा दी आपको पाठ
अपने की ज्येष्ठ को वन मैं भेज
कैसे बनू अवध का सम्राठ
राम है सिंहासन के अधिकारी
उनका सामर्थ्य अवध की शान
राम के जैसा न राजा है कोई
राम के जैसा न पुरुष महान
कैसे कठोर ह्रदय है माता
वरदान दिया है या दी कोई श्राप
पिता के मृत्यु का बना मैं कारण
कैसे हो गया मुझसे ये पाप
चार अंग और एक प्राण थे
भरत शत्रुघन लखन और राम
आप के इस निज स्वार्थ का कारण
कलंकित हुआ भरत का नाम
भारी ह्रदय और दुःख को समेटे
निकल पड़े भरत राम के द्वार
बंधु जनों और मंत्री संग
पहुंचे चित्रकूट नदिया पार
अश्रु बहे और शब्द न निकले
भ्रात को देख भर आया मन
राम ने उन्हें जब गले से लगाया
हुआ राम भरत का मधुर मिलान
लौट चलो ज्येष्ठ छोड़ो यह हठ,
क्षमा करो हम से हो गयी भूल
अपना सिंहासन खुद ही सम्भालो
मैं तो तोहरे चरण की धुल
पर वचन बद्ध जो रामचंद्र
पिता के प्रण का करे सम्मान
उनकी लीला अवध मैं न सीमित
नारायण करे जग कल्याण
चौदह बरस वो वन वन भटके
लंकेश ले गया सिया को साथ
वानर संग राम लंका पहुंचे
रावण का वध लिखा उनके हाथ
समय बीत चला तीव्र गति से
अवध मैं छायी हर्ष उल्लास
जानकी संग पधारे दशरथ नंदन
सफल हुआ उनका वनवास
पूर्ण हुई उर्मिला की प्रतीक्षा
कौशल्या की भर आयी आँख
अवध संपन्न राम राज्य से
अमर हो गया भरत का त्याग
निश्छल स्वभाव ढृढ़ संकल्प
कोमल विचार पर अटल है मन
आदर्श नायक , नीति के रक्षक,
आराध्य है सबके रघु नंदन
लब
सत्य धर्म का राह दिखाए
आज भी पर एक ही नाम
देश मैं हो परदेस मैं बैठे
हम तो जपते जय श्री राम